19 साल की उम्र में बलिदान: हवा में बम को कैच कर कारसेवकों के प्राण बचाए

“रामलला मंदिर और बलिदान: अयोध्या के कारसेवकों की कहानी”-राजस्थान के अजमेर में रहने वाले मानकचंद और अक्षय माहेश्वरी की बेटे और बहूतेरे कारसेवकों की जान बचाने वाले अविनाश माहेश्वरी की कहानी अब रामलला मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा की तैयारी में शामिल है। वे 19 साल की उम्र में ही बलिदान देने वाले अविनाश के माता-पिता हैं।

अयोध्या में रामलला के मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए तैयारीयों के दौरान, मानकचंद ने बताया कि उनका बेटा अविनाश ने 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढाँचा ढाहते समय अपनी जान गवाई थी। वह अयोध्या के टेढ़ा सर्कल पर बम फेंके जाने पर हवा में उसे कैच करने की कोशिश करते समय चोटी चोटी छर्रे लग गए थे।

उन्हें तत्काल अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उनकी जान नहीं बची। अविनाश ने बलिदान देकर सैकड़ों कारसेवकों की जानें बचाई थीं।

अक्षय ने बताया कि उनके पिताजी का संघ से गहरा नाता रहा है और इसी कारण से उनका बेटा भी संघ से जुड़ गया था। उन्होंने अयोध्या जाने की इच्छा जताई थी, जिस पर उन्होंने उसे रोते-रोते सो जाने की बात की थी।

अविनाश की साहसी कार्रवाई ने एक बड़ी कहानी को जीवंत किया है। उनका बलिदान और उनकी धैर्यशीलता ने अयोध्या में रामलला के मंदिर के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनकी प्रेम और समर्पण ने हिंदू समुदाय के लिए एक सांस्कृतिक और धार्मिक स्थल की पुनर्निर्माण में सहायक रहा है।

अविनाश की इस निष्ठा ने उसकी परिवारिक समुदाय को गर्वित किया है। उनके पिताजी मानकचंद ने बताया कि उनकी संघ से जुड़ी योगदानी ने उन्हें अपने समुदाय में सम्मानित किया है। उन्होंने सारी जिंदगी भगवान रामलला के मंदिर के लिए समर्पित की है।

इस पुनर्निर्माण के माध्यम से, उनकी बलिदानी भावना और संकल्प ने हिंदू-मुस्लिम सद्भावना और एकता को भी साबित किया है। वे न केवल एक समाजसेवी बल्कि एक सच्चे धर्मनिष्ठ भी थे। उनके साथी कारसेवकों के बलिदान ने उन्हें अमर बना दिया है। उनका यह समर्पण और साहस उनके परिवार के लिए गर्व का विषय है।

अविनाश माहेश्वरी की तस्वीर के साथ उनके माता पिता (फोटो साभार: एनडीटीवी)

मानकचंद माहेश्वरी के अनुसार अयोध्या की यात्रा से पहले, उनके बेटे ने उनकी डिस्पेंसरी पर जाकर मिलने के लिए आया था। उन्होंने अविनाश से कहा था, “जो काम भी तुम्हें सौंपा गया है, उसे ध्यान से अच्छे से करना।” माहेश्वरी के अनुसार, उस समय अजमेर से अयोध्या के लिए 28 लोगों की एक टोली निकली थी।

आवाजें गूंज रही थीं, “अविनाश अमर रहे!” और डंडे बरस रहे थे

मानकचंद माहेश्वरी ने दैनिक भास्कर को बताया कि उन्हें बेटे के बलिदान की जानकारी उन्हें आएसएस से संपर्क होने के कारण 6 दिसंबर 1992 को ही मिल गई थी। 7 दिसंबर को पूरे देश में कर्फ्यू लगा दिया गया था। उन्होंने बताया कि उन्होंने पत्नी को इसके बारे में 8 दिसंबर को ही बताया, जब उन्हें बेटे के शव की पहचान के लिए बुलाया गया था। 9 दिसंबर को संघ ने उन्हें अविनाश की अंतिम यात्रा जुलूस के रूप में निकालने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन कर्फ्यू के कारण उन्होंने इसे नकार दिया। अंतिम दर्शन करने की कोशिश के बावजूद, भीड़ उमड़ पड़ी और वहां ‘अविनाश अमर रहे’ के नारे लग रहे थे, परंतु प्रशासन ने भीड़ पर डंडे बरसाए थे। इस हादसे में कई लोगों को चोटें भी आई थीं।

बलिदान होने के बाद बहन को  पत्र मिला

अविनाश माहेश्वरी ने 6 दिसंबर को अयोध्या में अपना बलिदान दिया। उनके माता-पिता ने 28 नवंबर को उन्हें अंतिम बार देखा था। 30 नवंबर को उनकी बड़ी बहन, सुमन काबरा का जन्मदिन था। उन्होंने बहन को एक पत्र लिखा था, जो उनके बलिदान के तीन दिन बाद, यानी 9 दिसंबर को सुमन को मिला। उसमें लिखा था:

मैं अयोध्या पहुँच गया हूँ। यहाँ सब अच्छा है। कोई टेंशन की बात नहीं है। जन्मदिन की शुभकामनाएँ। जल्द अगला लेटर लिखूँगा। अजमेर में माँ -पापा भी ठीक होंगे, उन्हें भी लेटर लिखूँगा। फूलों का तारों का सबका कहना है, एक हजारों में मेरी बहना है।

मानकचंद माहेश्वरी के अनुसार, अविनाश के बलिदान के बाद लगभग एक महीने बाद, विश्व हिंदू परिषद ने उन्हें 2 लाख रुपए का चेक प्रदान करने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन उन्होंने इसे नकार दिया। उसके बाद, उन्होंने अपने बेटे की स्मृति में अजमेर के भजनगंज में एक स्कूल खोला। इस स्कूल की शुरुआत 28 बच्चों से हुई थी, और आजकल इसमें 650 बच्चे पढ़ रहे हैं। अपने दुख को छिपाते हुए, अक्षय और मानकचंद माहेश्वरी यह कहते हैं:

जिस काम के लिए हमारा बेटा वहाँ गया और अपना बलिदान दिया, वह काम अब पूरा हो रहा है। हमारे बेटे का बलिदान सार्थक हुआ। उसके बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

 

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